सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

लेख - स्वयं सम्पादकीय 02, ओबीसी आरक्षण को बढ़ाने का प्रयास सवर्णों के एक वर्ग कि नाराजगी और मध्यप्रदेश की मोहन यादव सरकार के मध्य बने त्रिकोण का विष्लेषण।

     कुछ दिनों से मध्यप्रदेश में ओबीसी समाज के आरक्षण को बढ़ाने के लिए किए जाने वाले प्रयास के तहत मध्यप्रदेश सरकार के द्वारा उच्चतम न्यायालय में पेश किये गए हलफनामे के बाद सोशल मीडिया पर कुछ सवर्ण बुद्धजीवी ने भाजपा को 2019 में सवर्ण रोष के कारण हार का सामना करना पड़ा था ऐसा लिख रहे हैं तो मैं उन्हें एक सच से अवगत कराना चाहता हूं की 2019 में बीजेपी 5-7% सवर्णों के रोष के कारण नहीं हारी थी बल्कि कांग्रेस पार्टी और कमलनाथ के किसानों के कर्ज माफ और बिजली का बिल माफ के वादे पर जीती थी और जो वादा कमलनाथ ने पुरा किया था जमीनी स्तर पर भी वो अमल में आया था तो गलतफहमी नही पालनी चाहिए खासकर मध्यप्रदेश को लेकर। और हां 2019 में भाजपा राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी हारी थी तो वहा कौन से आरक्षण को लेकर सवर्ण नाराज़ थे। 


    अब यही स्वघोषित सवर्ण भाजपा हितैषी जिस ओबीसी महासभा को एकदम से कांग्रेस समर्थक कह दे रहें हैं उसी ओबीसी महासभा ने पुरे राज्य में 2014 में और उसके बाद सभी लोकसभा चुनावों में मोदीजी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए हजारों ब्लाक स्तर की सभाएं की हैं और 2024 के परिणाम आपके सामने हैं मध्यप्रदेश कि 29 की 29 लोकसभा सीटें भाजपा ने जीती। और एक तथ्य शिवराज सिंह चौहान लगातार मध्यप्रदेश में इसलिए भी जितते रहे क्योंकि मध्यप्रदेश में वो स्वयं को ओबीसी समाज का हितैषी ऐसा जताते रहे थे और मध्यप्रदेश के लोग दिग्विजय सिंह के कुप्रसासन और उनके समर्थकों के अत्याचारों से त्रस्त थे और दिग्विजय सिंह सवर्ण हैं मुझे लगता है मुझे ये बतानें कि आवयश्कता नही है।  गुजरात में मोदीजी को भी तथ्य में रखना चाहिए वो भी गुजरात में लगातार जीतते रहे ओबीसी समाज से आते हैं। 


    पता नही हर सवर्ण बुद्धजीवी और चिंतकों को ये भ्रम या कहें कि अहंकार क्यों हों जाता है कि हम नहीं तों भाजपा कुछ नहीं। यहां मैं लिखना नहीं चाह रहा था लेकिन जब मैंने इन बुद्धिजीवियों से भाजपा के 2019 का मध्यप्रदेश का चुनाव हारने का कारण सवर्ण रोष बताते हुए पढ़ा तो मुझे लगा मुझे सच्चाई लिखनी चाहिए। एक तथ्य और इन बुद्धिजीवियों को नहीं भुलना चाहिए कि 2014 से पहले भाजपा को ब्राह्मण बनिया पार्टी कहा जाता था और उससे पहले जब केन्द्र सरकार में थे तो कितनी सीटों के साथ थे ये हम सब जानतें हैं और जब एक ओबीसी के व्यक्ति यानी मोदीजी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो उसके बाद का परिणाम भी हम सब जानतें हैं। रही बात 2024 की तों भाजपाई ये जानतें हैं कि उत्तरप्रदेश और राजस्थान में क्या हुआ था। मैं किसी भी तरह से सवर्ण विरोधी नहीं हूं और ना इसकी कोई आवश्यकता समझता हूं। मध्यप्रदेश में ओबीसी समाज 55-60% है और 14% का आरक्षण इसके लिए ऊट के मूंह में जीरा बराबर भी नहीं है तो इसे हर हाल में बढ़ाया जाना ही चाहिए। 


     कुछ सवर्ण चिंतक और स्वघोषित हितैषी लगातार ये दुष्प्रचार कर रहे हैं या दुसरे शब्दों में कहें तो धमकी दे रहे हैं कि सवर्ण तो भाजपा को 80-90% वोट देता है भाजपा को अपने कोर वोटर को नारज करके बहुत बुरा परिणाम मध्यप्रदेश में भुगतान पड़ सकता है तो उन लोगों को मैं सामान्य गणित समझाना चाहूंगा कि 20% का 90% भी मात्र 18 वोट ही होगा और 50% का 50% भी 25 वोट होगा। तो 25 वोट अधिक हैं या 18 वोट। भारत में चुनाव संख्या बल से जीता जाता है ना कि मत प्रतिशत से तो ये तर्कहीन बात करना बंद कर देना चाहिए सवर्ण बुद्धजीवी को। मुझे यकिन है कि भाजपा का केन्द्रीय नेत्तृत्व भी यह सामान्य गणित समझता होगा और राज्य का भी पर सवर्ण बुद्धिजीवियों को अभी भी भाजपा का कोर वोटर होने का अहम है या वो ऐसा दिखावा करते हैं लेकिन सच्चाई इससे उलट है। मुझे लगता है कि राज्य सरकार को इस दबाव में आए बीना ओबीसी समाज को उसका हक दिलाने का प्रयास जारी रखना चाहिए। 


     वर्तमान में ओबीसी आरक्षण को लेकर मध्यप्रदेश में जो व्यवस्था है इससे लाखों कि संख्या में ओबीसी छात्र प्रभावित हो रहें हैं तो इसका समाधान निकालना ही चाहिए। अपेक्षा कि जा रही है कि माननीय उच्चतम न्यायालय एक सकारात्मक पथ प्रदान करें जो लाखों लोगों के जीवन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करे।

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

लेख - स्वयं संपादकीय 01, मध्यप्रदेश कि मोहन यादव सरकार और ओबीसी आरक्षण विवाद पर विष्लेषण।

मध्यप्रदेश कि मोहन यादव सरकार और ओबीसी आरक्षण विवाद पर विष्लेषण। 


     मध्यप्रदेश में ओबीसी की जनसंख्या लगभग 55-60% हैं लेकिन आरक्षण मात्र 14% प्रभावी है बाकी के 13% पर रोक है लेकिन सवर्ण मात्र 10-12% होंगे तो उनके लिए जनरल का 40% और ईडब्ल्यूएस का 10% हैं कुल मिलाकर सवर्णों के पास 50% उपलब्ध है तो बहुत तर्कों की बात करने वाले ये बताएं कि ये कौन से आधार पर सही है। वर्तमान में देश में जातिगत आरक्षण ही है ना। 


     मैं जिसकी जीतनी जनसंख्या उसका उतना हक की बात नहीं कर रहा लेकिन जो लोग मध्यप्रदेश की जनसंख्या का 15% भी नहीं हैं उनके लिए सिधे 50% है तो ये बाकि लोगों के साथ घोर अन्याय है। इससे तो अच्छा है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर कर दिया जाए। पर जब तक ये नहीं हो रहा है ओबीसी समाज को उसका हक मिलना चाहिए। 


     आज मुख्यमंत्री श्री मोहन यादव जी को वो लोग गाली दे रहे हैं जो लोग सुबह साम हिन्दू एकता का गाना गाते हैं और बटोगे तो कटोगे समझाते रहते हैं। मैं महाजन आयोग की प्रभु श्रीराम को लेकर जो बात है उसका पुरा विरोध करता हूं इसमें कोई किन्तु परन्तु नहीं है। ना मैं किसी भी तरह से सवर्ण विरोधी हूं और ना इसकी कोई आवश्यकता समझता हूं और ना मुझे समझा जाना चाहिए। 


     आज जो लोग श्री मोहन यादव जी पर निजी हमले कर रहे हैं उन्हें याद रखना चाहीए की ये सब कुछ मध्यप्रदेश और पुरे देश का ओबीसी समाज देख रहा है। आप मोहन यादव की आलोघना नहीं कर रहें हैं बल्कि पिछड़ी जातियों के लिए आपके मन मे जो अंतर्निहित घृणा है उसका प्रदर्शन कर रहे हैं। 


     मैं निजी तौर पर मुख्यमंत्री श्री मोहन यादव सरकार का हर संभव समर्थन करता हूं कि आखिर वो प्रयास तो कर रहे हैं ओबीसी समाज का उनका वास्तविक प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए। शिवराज सिंह चौहान जी जैसे रीड विहीन नेता से मध्यप्रदेश को छुटकारा मिल गया जो चुनाव के दौरान खुद को ओबीसी समाज का मसीहा होने का दिखावा कर ओबीसी का वोट तो प्राप्त कर लेते थे लेकिन हक देने की बात पर नाग की तरह कुंडली मारकर बैठे थे।


     शिवराज सिंह चौहान के कई कार्य बहुत उत्तम थे लेकिन उन्होंने ओबीसी समाज की अनदेखी की यह बात सर्वथा सत्य है। आज कम से कम मुख्यमंत्री श्री मोहन यादव के रुप में एक उम्मीद तो जगी है कि शायद वो हजारों अभ्यार्थि अपना हक प्राप्त करले जो कई वर्षों से चयनित होने के बाद भी प्रतिक्षा कर रहे हैं।

बुधवार, 8 नवंबर 2023

निबंध , जाती जनगणना की हवामिठाई का सच |


आपने कभी न कभी हवामिठाई तो खायी ही होगी कुछ ऐसी ही वोट बैक की राजनीति का सबसे बड़ा और मजबूत आधार रही है जाती जनगणना की हवामिठाई यानी अंग्रेजी में कास्ट आइडैंटिटी और इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य को अंग्रेजी में ही आइडैंटिटी पालिटिक्स कहा जाता है जो भारत में कोई नयी बात नहीं है यह भारत की पहली जनगणना से ही अंग्रेजों ने डिवाइड एण्ड रुल की नीति से हम पर थोप दी और जब तक वो भारत छोड़कर नही गए इसे करते रहे हालाकि स्वतंत्रता के बाद जाती जनगणना तो नहीं होती मगर सरकार तो इसका डाटा रखती ही है | मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद से जाती की राजनीति का असल उदय समझना चाहिए क्योंकि उसी के बाद से स्पष्ट रुप से कुछ जातिगत राजनीति करने वाले दल अस्तित्व में आए कुछ ने स्वयं को समाजवादी कहा तो कुछ ने स्वयं को जनता का दल कहा तो कुछ ने स्वयं को बहुजन समाज से जोड़कर प्रस्तुत किया और यह मिला जुला सिलसिला चलता रहा | 


जाती जनगणना करवाने का जो प्रमुख मक़सद है वो ये कि सामाजिक और आर्थिक विकास की दौड़ में पीछे छूट गई जातीयो को देश के साथ विकास में जोड़ना और विकास के अवसर देना और आरक्षण इसी का परिणाम रहा है मगर अब यह अपने मूल अर्थ से पूर्ण रुप से भटक गया है | कारण यह है कि जिन अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिला है उसका एक तरफा लाभ अब मात्र उन्हीं जातियों के लोगों को मिल रहा है जिन्हें इसका लाभ लंबे समय से मिलता आ रहा है और बहुत हद तक इन्ही कुछ जातियों ने जिनकी संख्या ज्यादा है उन्होंने ही इस पूरे आरक्षण पर एकाधिकार कर रखा है चाहे इसमें आप अनुसूचित जातियों की बात करें अनुसूचित जनजातियों की बात करें या फिर पिछड़ी जातियों की | हर वर्ग की वही दशा है | 


यदि सही अर्थों में आरक्षण को सर्वाधिक उपयोगी बनाना है तो आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए जो अब इकोनामिक बिकर सेक्शन यानी ईडब्लुएस के रुप में सवर्ण वर्ग को मिल रहा है लेकिन यह भी कुछ समय के बाद कुछ ही सवर्ण जातियों तक सीमित रह जाएगा आप देख लीजिए गा , वजह यही है कि एक बार हमारे देश में किसी जाति या वर्ग को आरक्षण देने के बाद फिर उसकी अवस्था तथा आरक्षण से प्राप्त लाभों का कोई मुआयना नही किया जाता और इसका नतिजा यह निकलता है की एक पूरे वर्ग को मिला आरक्षण कुछ मजबूत जातियों तक ही सीमित होकर रह जाता है और वोट बैक खोने का सरकारों और राजनीतिक पार्टियों में ऐसा डर है कि इसका आकलन करना तो छोड़ीए आकलन करने की बात कहने तक की हिम्मत किसी में नही है फिर चाहे वो सत्ताधारी पक्ष हो या विपक्ष | 


यदि जातिगत आरक्षण का आकलन किया जाए तो सत्य खुद ब खुद सबके सामने आजाएगा कि जिस आरक्षण को प्राप्त करने के लिए आंदोलन किए जाते हैं जाती को आरक्षण देने की बात करने वाली पार्टी तथा नेताओं को अपना वोट देते हैं वो आरक्षण वास्तव में आपके जीवन पर कोई फर्क डालता भी है कि बस हवामिठाई ही है | अब आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर फिर से बिहार सरकार ने जाति जनगणना करवाई है और आरक्षण की तय सीमा को बढ़ाकर 75% कर सकते हैं साथ ही कुछ और भी गैर भाजपा शासित राज्यों ने इसे कराने की बात कही है खासकर जिनमें अभी चुनाव प्रकिया चल रही है मगर चाहे किसी राज्य मे जातिगत जनगणना हो या देश के स्तर पर सवाल अब भी वही है कि इसका लाभ किसे मिले यह कौन सुनिश्चित करेगा और किन जातियों को अब इसकी जरुरत नहीं है यह कौन तय करेगा ? प्रश्न बड़ा है और मैं चाहूंगा की आप स्वयं इसका उत्तर तलाश करें | 


अंत में सबसे जरुरी बात यह की अपना वोट बैक साध रहे इन नेताओं को क्या इस बात का अंदाजा भी है कि जाति जनगणना के बाद अगर हर जाती आरक्षण की मांग करने लगे और अपनी मांग को लेकर आंदोलनरत हो जाए तो इससे देश में किस तरह का माहौल निर्मित होगा और फिर ऐसे हालात में क्या देश का भाईचारा सुरक्षित रह पाएगा | असल में मेरे अनुसार जाति जनगणना का दाव विशुद्ध रूप से राज्यों के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वोट बैक को साधने का एक हथकंडा मात्र प्रतीत होता है और कुछ भी नहीं |